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कागज़ का टुकड़ा

kalam bhavukta ki
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इक कागज़ का टुकड़ा ज़मीन पर आया,
खरोंचें हर तरफ, ज़ख़्मी और पराया,
आधी तस्वीर बनी थी किसी की उसपे,
शायद बनाने वाले को, अपना ही काम ना भाया।

ज़ख़्मी कागज़ वहीं रोता रहा,
अपनी सादगी, अपना वजूद, खोता रहा,
पर तभी किसी ने उसे ज़मीन से उठाया,
और उसके ज़ख्मों पर प्यार का मरहम लगाया।

दर्दों के जाल में कुछ इस कदर था फँसा,
कि वो कागज़ उस नए प्यार को अपना ना सका,
और इसी गुज़ारिश में रोता रहा,
कि, “पहुँचा दो मुझे, वो चित्रकार है रहता जहाँ।”

नसीब ने फिर मिलाया कागज़ को चित्रकार से,
तस्वीर पूरी हुई कागज़ पर, वो भी बड़े प्यार से,
पर उसे फिर छेड़ने लगा उसके अतीत का साया,
कि किस तरह वो कागज़ का टुकड़ा था ज़मीन पर आया।

Kaagaz ka tukda
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